Adolf Hitler Kaun Tha?

वो मंसूबा साज था, जीनियस था, लीडर था, करिश्माई था और सबसे बढ़कर यह कि वो जो बन गया, वो यह नहीं बनना चाहता था। वो एक चित्रकार बनना चाहता था। इस दुनिया को अपने फन से महसूस करना चाहता था, लेकिन इसके हाँथों ने बंदूक थाम ली और फिर एक युग इसके बदले की आग में जलकर भष्म हो गया। आपको बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बात लग रही होगी, लेकिन यह एक सच्चाई है कि आज हम जिस दुनिया में रहते हैं, वो इसके खौफ के साये से इबारत है। एटम बम से लेकर हवाई बमबारी तक बहुत से हथियारों के डिजाइन इसी की लेबोरेटरी में तैयार किये गए थे। Adolf Hitler कौन था और आज की दुनिया इसके खौफ से इबारत क्यों हैं? आज के इस आर्टिकल में हम आपको तारीख के इसी विवादास्पद व्यक्ति की कहानी बताएँगे।

नाम एडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler)
जन्म 20 अप्रैल सन 1889

ब्रौनौ ऍम इन्, ऑस्ट्रिया – हंगरी

पिता एलोईस हिटलर
माता क्लारा हिटलर
भाई बहन-गस्तव, इदा
जीवन संगी ईवा ब्राउन (वि॰ 1945)
नागरिकता ऑस्ट्रियन (1889–1925), राज्य विहीन (1925–1932), जर्मन (1932–1945).
राजनीतिक दल नाजी पार्टी (1921–1945)
अन्य राजनीतिक
संबद्धताऐं
जर्मन वर्कर्स पार्टी (1919–1920)
प्रसिद्ध पुस्तक मेरा संघर्ष (Mein Kampf)
मृत्यु 30 अप्रैल 1945 (उम्र 56) बर्लिन, नाजी जर्मनी

28 सितम्बर 1918 का दिन है। पहला विश्वयुद्ध खत्म हो रहा है। पेरिस से 188 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा है Marcoing. यहाँ एक ब्रिटिश सोल्जर के निशाने पर एक नौजवान जनरल सोल्जर है, जिसे वो छोड़ भी सकता है और मार भी सकता है। जर्मन सोल्जर जो असल में एक डाकिया है को यकीन है कि इसे गोली मार दी जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ब्रिटिश सोल्जर ‘Henry Tandey’ ने इसे निहत्था देखकर बंदूक नीचे कर ली और इसे जाने का इशारा किया। प्रत्यक्ष स्पष्ट रूप से यह प्रथम विश्वयुद्ध की हजारों घटनाओं में से एक घटना है, लेकिन हेनरी नहीं जानता कि वो एक तारीख लिख चुका है क्योंकि जिस व्यक्ति को इसने छोड़ा है, वो Adolf Hitler है। वही हिटलर जिसके छेड़े दूसरे विश्वयुद्ध में 5 करोड़ से भी ज्यादा इंसान काल के गाल में समा गए।

प्रथम विश्वयुद्ध की यह घटना हिटलर ने खुद उस वक्त सुनाया था, जब एक अखबार में इसने ब्रिटिश सोल्जर हेनरी की तसवीर देखी थी।

Henry Tandey and Adolf Hitler
Henry Tandey and Adolf Hitler

यह तो थी हेनरी और हिटलर की तस्वीर। यह बड़ी-बड़ी मूंछों वाला हिटलर प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बेल्जियम और फ्रांस के मोर्चे पर डाकिया (पोस्ट मैन) की सेवाएं दे रहा था।

जब ब्रिटिश फौज ने जर्मनों के विरुद्ध जहरीली गैस इस्तेमाल की तो इससे बचने के लिए सब ने मास्क पहन लिया, लेकिन हिटलर के लिए समस्या खड़ी हो गई कि इसकी बड़ी-बड़ी मूछें मास्क से बाहर रह जाती थीं। इस प्रकार हिटलर ने मास्क के साइज के हिसाब से मूछें कटवा लीं और यूँ हिटलर का वो चेहरा सामने आया, जिससे वो आज भी पहचाना जाता है।

प्रथम विश्वयुद्ध के एक ऐसी ही गैस के हमले में हिटलर की आँखों में भी गंभीर चोटें आयीं और वो अँधा हो गया, लेकिन इलाज के बाद हिटलर के आँखों की रौशनी लौट आयी। आँखों की रौशनी तो लौट आयी, लेकिन अब इन आँखों में जर्मनी के दुश्मनों से बदले की आग सुलग रही थी।

हिटलर की पैदाइश और परवरिश जर्मनी के पड़ोसी देश आस्ट्रिया में हुई थी, लेकिन युद्ध के बाद से वो पक्का जर्मन बन चुका था। वो बचपन में चित्रकार बनना चाहता था, लेकिन अब इसने यह विचार छोड़ दिया था और तय किया कि वो हार का बदला लेकर रहेगा, चाहे इसके लिए पूरी दुनिया से टकराना पड़ जाय।

हिटलर ने अपनी राजनीतिक जिंदगी की शुरुआत एक छोटी सी पार्टी से की। इस पार्टी का नाम था “जर्मन वर्कर्स पार्टी”. यह वही जर्मन पार्टी है, जो बाद में “नाजी पार्टी” के नाम से जानी गई। यह पार्टी प्रथम विश्वयुद्ध में हारे और बदले की भावना रखने वाले जर्मन नागरिकों और पूर्व फौजियों ने बनाई थी क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बर्तानिया और फ्रांस ने जर्मनी से वो इलाके छीन लिए थे, जो शदियों से इसके साम्राज्य में शामिल थे।

यही नहीं जर्मनी को मजबूर किया गया कि इस युद्ध में फ्रांस समेत विश्व शक्तियों का जो नुकसान हुआ है, इसका हर्जाना भी अदा करे। हर्जाने की रकम 96,000 टन सोने के बराबर बनती थी। यह जर्मन नागरिकों के लिए बड़ा अपमान था और चूँकि नाजी पार्टी हार के बाद जर्मनी पर जबरन थोपी गई शर्त के खिलाफ थी। इसलिए जनता के बीच पॉपुलर थी। हिटलर इस पार्टी में प्रोपेगेंडा का इंचार्ज बना था, लेकिन 1921 में इसे पार्टी ने मुखिया बना दिया।

दिलचश्प बात यह है कि हिटलर पहले पार्टी का मुखिया बनने से इंकार करता रहा था, लेकिन जब इसने पार्टी का उतार देखा तो नेतृत्व संभालने की हामी भर ली। पार्टी का हेड बनने के बाद हिटलर ने पार्टी चिन्ह भी खुद डिसाइड किया। यह चिन्ह असल में हिंदुस्तान में इस्तेमाल होता था और अब भी होता है। हिन्दू, बुध और जैन धर्म के पैरोकार इसे अध्यात्मवाद की पहचान मानते थे।

हिटलर के दौर में यह चिन्ह यूरोप में सौभाग्य की पहचान के तौर पर भी आम इस्तेमाल होता था। बड़ी-बड़ी कंपनियां स्वस्तिका पर अपने विज्ञापन बनाती थीं और जानते हैं हिटलर ने इसे अपनी पार्टी का चिन्ह क्यों बनाया? इसकी एक बहुत दिलचस्प वजह है। असल में जर्मन समझते थे कि हिंदुस्तानी और जर्मन कौमें एक ही नस्ल से संबंध रखती हैं।

हिटलर स्वस्तिका को आर्य नस्ल की निशानी समझता था, तो हिटलर ने इसे नाजी पार्टी का निशान बना लिया, लेकिन यह ट्रैजिडी ही है कि जो चिन्ह सौभाग्य और सुख-समृद्धि की पहचान था। इसे हिटलर ने दुनिया में तबाही और दहशत की निशानी बना दिया।

General Ludendorff (Photo credit historynet)
General, Erich Ludendorff (Photo credit historynet.com)

नाजी पार्टी एक स्थानीय पार्टी थी, लेकिन जब प्रथम विश्वयुद्ध का हीरो Former General ‘Erich Ludendorff’ भी इसमें शामिल हो गया तो पार्टी में जैसे जान आ गई।

Ludendorff, जर्मन फौजों का टॉप कमांडर था और इसने प्रथम विश्वयुद्ध में रुसी फौजों को धूल चटाई थी। मगर जब ब्रिटिश फौज मैदान में आई तो Ludendorff हार गया, लेकिन अब वो सियासी शोहरत के लिए हार का मलबा सियासतदानों पर डालकर जनता को भड़का रहा था।

Erich Ludendorff के साथ मिलने से Adolf Hitler की ताकत बढ़ गई। वो जर्मनी में क्रांति लाना चाहता था। इसके लिए 1921 में इसने (S.A) के नाम से एक संगठन बनाया। इस संगठन के जर्मन नाम का मतलब था “Attack the vision”. और उसके कार्यकर्त्ता खाखी शर्ट पहनते और स्ट्रांग कूपर्स कहलाते थे। इसके कार्यकर्तांओं से शपथ लिया गया था कि वो हिटलर के नाम पर कट मरेंगे।

अगले साल 1922 में मुसोलिनी इटली में सफल हुआ, तो हिटलर को लगा कि वो भी ऐसी ही सफलता प्राप्त कर सकता है। अब हिटलर क्रांति का मौका ढूंढ रहा था और यह मौका इसे रूहर (Ruhr) ने उपलब्ध कराया।

रूहर, जर्मनी का एक क्षेत्र है जो बर्लिन के पश्चिम में नीदरलैंड की सरहद पर स्तिथ है। इस क्षेत्र में कोयले की खानें और लोहे की फैक्टरियां हैं। जर्मनी जब विश्वशक्तियों को हर्जाने की रकम अदा ना कर सका, तो फ्रांस और बेल्जियम ने जनवरी 1923 में रूहर पर कब्जा कर लिया।

रूहर एक इंडस्ट्रियल सिटी था। इस पर कब्जे का मकसद यह था कि अलायंस यहाँ के संसाधनों से अपना हर्जाना वसूल सकें। अब मौजूदा स्तिथ यह थी कि रूहर पर फ्रांस और बेल्जियम का कब्जा था, लेकिन यहाँ की फैक्टरियों में काम जर्मनी के मजदूर ही कर रहे थे।

जर्मनी, हमलावरों का मुकाबला तो ना कर सका, लेकिन जर्मन सरकार ने एक बड़ा फैसला किया। इसने रूहर के फैक्टरी मजदूरों और कामगारों को आदेश दिया कि वो काम बंद कर दें। सरकार इन्हे घर बैठे वेतन देगी। यह कदम इसलिए उठाया गया ताकि अलायंस फौजों ने जिस मकसद के लिए कब्जा किया है यानि फैक्ट्रियों के माध्यम से फायदा उठाने के लिए तो ये फायदा ना उठा सकें।

सरकार ने ऐलान तो कर दिया, लेकिन खजाने में सैलरी देने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए सरकार ने धड़ा-धड़ करेंसी नोट छापे। इसका नुक्सान यह हुआ कि जर्मन करेंसी की वैल्यू गिरते-गिरते 2 कौड़ी की हो गई। करेंसी की वैल्यू इतनी गिरी कि 1923 में जर्मनी में 1 डबलरोटी 2 अरब मार्क की मिलने लगी।

लोग ब्रेड लेने के लिए बेकरी जाते, तो थैले भरकर नोट्स साथ ले जाते। करेंसी के गिरने का नतीजा यह निकला कि जिन लोगों ने उम्र भर की मेहनत से 10-20 लाख मार्क जमा किये थे, इनकी बचत लगभग शून्य हो गई। बैंकों में पड़े अरबों करेंसी नोट लगभग बेकार हो गए और चंद दिनों में अरबपति, खकपति हो गए। जर्मन करेंसी इतनी अपमानित हुई कि लोग शर्दी के मौसम में गैस और लकड़ी बचाने के लिए अंगेठी में करेंसी नोट जलाने लगे थे।

तो यह था वो जर्मनी, जिसमे अब वो हालात पैदा हो चुके थे, जो क्रांति और क्रांतिकारी नेता को जन्म देते हैं। एक ऐसे नेतृत्व की कमी थी, जिस पर जर्मन जनता विश्वास कर सके कि वो उन्हें इस अंधेरे से निकलेगा। ऐसे नेतृत्व की कमी को खासकर दो लोग पूरा सकते हैं, एक राजनेता या दूसरे जज्बाती और क्रांतिकारी लोग।

तो जर्मनी की यह किस्मत ही थी कि उस समय जर्मनी में इस हालात को करिश्माई शख्सियत वाले Adolf Hitler ने पूरा करना शुरू कर दिया। वो एक राजनेता था या एक जज्बाती क्रांतिकारी? इसका फैसला आप खुद कीजिए।

उस समय तक हिटलर अपने संगठन “अटैक द विज़न” को विस्तृत करने का काम पूरा कर चुका था। अब इसका संगठन आम पॉलिटिकल पार्टी नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी राजनीतिक पार्टी बन चुकी थी। सिर्फ म्यूनिख शहर में इसके 3,000 सिपाही थे।

हिटलर ने मुसोलिनी से प्रभावित होते हुए क्रांति के बाकायदा ऐलान का फैसला किया और इसके लिए इसने म्यूनिख के वेयरहॉल का चुनाव किया।

08 नवंबर 1923, हिटलर पिस्तौल लहराता हुआ वेयरहॉल में दाखिल हुआ और शहर पर नाजी पार्टी के पड़ाव का ऐलान कर दिया। ऐलान के अगले दिन वो अपने हजारों कार्यकर्ताओं के साथ शहर के केंद्र स्थल पर कब्जे के लिए आग।

Benito Mussolini (Photo credit NDTV
Benito Mussolini (Photo credit NDTV)

हिटलर को उम्मीद थी कि इस कार्यवाई से इसे भी मुसोलिनी की तरह प्रसिद्धि और सत्ता मिल जाएगी, लेकिन यह हिटलर की मूर्खता सबित हुई। केंद्र स्थल पर जमा होते ही नाजियों पर जर्मन पुलिस ने फायर कर दिया। जवाब में नाजी कार्यकर्ताओं ने भी फायरिंग शुरू कर दी। कुछ देर ही जारी रहने वाले इस मुकाबले में 14 नाजी और 4 पुलिस वाले मर गए, लेकिन मैदान पुलिस के हाँथ रहा।

यूँ हिटलर के क्रांति की पहली कोशिश या आप उसे बगावत भी कह सकते हैं, यह असफल हो गई। हिटलर के ज्यादतर साथी पकड़े गए। हिटलर फरार होने में कामयाब रहा, लेकिन दो दिन बाद इसे जर्मन पुलिस ने ढूंढ निकाला और जेल में डाल दिया।

इस बगावत में प्रथम विश्वयुद्ध का जर्मन हीरो Erich Ludendorff ‘हिटलर’ के साथ था। वो भी सरकार की तहरीर में था। इसलिए दोनों पर गद्दारी का मुकदमा चला। Erich Ludendorff तो पूर्व जनरैल और बहुत असरो-रुसूख़ वाला व्यक्ति था। वो अपने संबंधों और पहुँच की वजह से बच निकला। हिटलर को पाँच साल कैद की सजा हुई, लेकिन अच्छे चाल-चलन और नाजी पार्टी के दबाव पर इसे 9 माह बाद ही रिहा कर दिया गया था।

Mein Kampf (Photo credit blackwell's)
Mein Kampf (Photo credit blackwell’s)

जेल में ही हिटलर ने अपनी किताब “Mein Kampf” लिखी, जिसका अर्थ है ‘मेरा संघर्ष’. यह किताब हिटलर के भविष्य काल की एक झलक पेश करती है। किताब में हिटलर ने जर्मन आर्य नस्ल को उच्च नस्ल के तौर पर पेश किया था। जबकि इस बात पर जोर दिया था कि बाकी दुनिया के इंसान जर्मनों से कम दर्जे के हैं और दुनिया की समस्याएं इसी रूप में खत्म हो सकती हैं, जब महाशक्ति जर्मनियों के हाँथ में हो। इसी किताब में हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी के उतार का कारण बताया था।

हिटलर की कैद के दौरान जर्मनी के हालात बेहतर नहीं हुए थे, बल्कि खराब से और खराब होते जा रहे थे और चूँकि हिटलर ने सरकार के खिलाफ बगावत की थी। इसलिए हिटलर कैद के दौरान पूरे देश में फेमस हो चुका था, लेकिन इसी दौरान हिटलर ने असफल बगावत से यह सबक सीख लिया था कि जर्मनी में क्रांति बुलेट (बंदूक की गोली) से नहीं, बल्कि बैलेट पेपर से लाना ज्यादा आसान है। इसलिए जेल से रिहा होते ही हिटलर ने नाजी पार्टी को इलेक्शन के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। इस दौरान वो समस्या भी हल हो चुकी थी, जिसने हिटलर को बगावत की राह पर चलाकर जेल पहुँचाया था यानि फ्रांस और बेल्जियम ने रूहर इलाका खाली कर दिया था और इसकी वजह थी अमेरिका, जी..हाँ अमेरिका।

अमेरिका ने जर्मनी को हर्जाना देने और सरकार चलाने के लिए भारी कर्ज दे दिया था। अमेरिकी गारंटी मिलने के बाद फ्रांस और बेल्जियम खुद ही पीछे हट गए। इन हालत में हिटलर चुनावी मैदान में उतरा, तो इसे पार्टी प्रोपेगेंडा चलने के लिए योग्य व्यक्ति की जरुरत महसूस हुई और इसकी नजर में यह योग्य व्यक्ति था Joseph Goebbels.

Joseph Goebbels (Photo credit BBC)
Joseph Goebbels (Photo credit BBC)

Joseph Goebbels के पैर पोलियो की वजह से बचपन से ही टेंढ़े थे और वो लंगड़ाकर चलता था, लेकिन प्रोपेगेंडे का मास्टर था। यह वही Joseph Goebbels है, जो कहता था कि झूठ इतना ज्यादा और लगातार बोलो कि सच लगने लगे। हिटलर का Joseph Goebbels को प्रोपेगेंडा इंचार्ज बनाने का फैसला सही साबित हुआ और Joseph Goebbels ने Adolf Hitler का पॉइंट ऑफ व्यू पूरे जर्मनी में फैला दिया।

प्रोपेगेंडा के बाद दूसरा चरण था फंड्स का, लेकिन यह समस्या भी बहुत जल्द हल हो गई। इसकी वजह थी कम्युनिस्ट धड़े। ये लोग ट्रेड यूनियन की मदद से राजनीतिक ताकत हासिल कर रहे थे। जर्मनी के एलीट क्लास और मिडिल क्लास लोग दोनों ही इनसे भयभीत थे कि अगर कम्युनिस्टों की सरकार आ गई, तो इनकी फैक्ट्रियां छिन जाएंगी। इसलिए उनहोंने कम्युनिस्टों के खिलाफ हिटलर को दिल खोलकर पैसा दिया।

हिटलर के समर्थकों में विश्व प्रसिद्ध अमेरिकी कार कंपनी फोर्ड का मालिक हेनरी फोर्ड भी शामिल था। हेनरी फोर्ड ने युद्ध के दिनों में हिटलर की आर्थिक मदद भी की। हिटलर ने जनता के बीच अपनी छवि बेहतर बनाने के लिए प्रचार किया कि वो एक साधारण व्यक्ति है, जो सिगरेट, मास-मदिरा से परहेज करता है और शाकाहारी है।

हिटलर के डर से नाजी अधिकारी छुपकर सिगार पीते थे। यह और बात है कि हिटलर खुद छुपकर Efune का नशा करता रहा। लेकिन, हिटलर की जनता के बीच छवि, Joseph Goebbels का प्रोपेगेंडा और अमीर घरानों की फंडिंग भी काम ना आई और जब 1928 में पार्लियामेंट के इलेक्शन हुए, तो नाजी पार्टी को पार्लियामेंट की 647 सीटों में से सिर्फ 12 सीटें और 2.6 प्रतिशत उन्हें वोट मिले। यह हिटलर के लिए बुरी खबर थी, लेकिन अगले ही साल जर्मनी से हजारों मील दूर अमेरिका में एक ऐसी घटना हुई, जिसने हिटलर का वोट बैंक कई गुना बढ़ा दिया।

हुआ यूँ कि 29 अक्टूबर 1929 को अमेरिकी स्टॉक मार्केट क्रैश कर गई। इस घटना से पूरी दुनिया आर्थिक तंगी का शिकार हो गई, जो The “Great Depression” कहलाया। The “Great Depression” की वजह से जर्मनी के लिए अमेरिकी कर्ज रुक गया। इंडस्ट्री बंद हो गई और 61 लाख वर्कर्स बेरोजगार हो गए। हिटलर ने इन हालात का फायदा उठाया। खुद को मसीहा के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया। आर्थिक तंगी की वजह से सरकार ने इस्तीफ़ा दे दिया था।

Geli Raubal (Photo credit Wikipedia)
Geli Raubal (Photo credit Wikipedia)

1930 में फिर इलेक्शन हुए, तो हिटलर को 18% वोट हासिल हुए, लेकिन वो सरकार बनाने की स्तिथ में अब भी नहीं था। इस दौरान हिटलर को एक जज्बाती धचका भी लगा। जब इसकी मेहबूबा “Geli” ने खुदकुशी (Suicide) कर ली। गेली, हिटलर के सौतेली बहन की बेटी थी। हिटलर कई हफ्तों तक सदमे में रहा और इसने गेली को अपनी जिंदगी का “इश्क” करार दिया, लेकिन फिर वो एक दुकान में नौकरी करने वाली “Eva Braun” इश्क में गिरफ्तार हो गया।

Eva Braun
Eva Braun

Eva Braun, निःसन्देश हसीन थी। इसे जिमनास्टिक का भी शौक था। वो घूमने-फिरने और पार्टियां करने वाली लड़की थी, लेकिन इसे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। हिटलर चाहता तो Eva Braun से तुरंत शादी कर सकता था, लेकिन इसने ना सिर्फ यह कि Eva Braun से शादी नहीं की, बल्कि वर्षों तक अपने इश्क को दुनिया से छुपाकर भी रखा क्योंकि हिटलर के बारे में यही मशहूर किया गया था कि उसका इश्क “जर्मनी” है और वो जर्मनी से शादी कर चुका है। इसलिए जर्मन नागरिक हिटलर की जिन्दगी में किसी औरत की मौजूदगी से लम्बे समय तक बेखबर ही रहे। सिर्फ हिटलर के सबसे करीबी लोगों को ही Eva Braun से मिलने की इजाजत थी।

हिटलर की जज्बाती जिन्दगी की तरह ही इसकी राजनीतिक जिन्दगी में भी एक बड़ी रुकावट आई और इस रुकावट का नाम था “Paul von Hindenburg”.

Paul von Hindenburg (Photo credit Britanica)
Paul von Hindenburg (Photo credit Britanica)

जर्मनी का 85 वर्षीय बूढ़ा राष्ट्रपति “Paul von Hindenburg” प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन फौज का सर्बरा रह चुका था और जनता के बीच इसे देवता जैसा सम्मान हासिल था। यह बूढ़ा प्रेसिडेंट ‘हिटलर’ को खतरनाक समझता था और किसी सूरत इसे चांसलर बनाने के लिए राजी नहीं था।

1932 में पार्लियामेंट इलेक्शन हुए, तो हिटलर “Paul von Hindenburg” के मुकाबले में खड़ा हो गया। अप्रैल में इलेक्शन हुए। हिटलर को 36% पॉपुलर वोट तो मिले, लेकिन इलेक्शन जीता “Paul von Hindenburg”. उधर आर्थिक संघर्ष की कठिनाई बावजूद दूसरा चांसलर भी ना बन सका।

जुलाई 1932 में फिर पार्लियामेंट के इलेक्शन हुए, तो नाजियों ने 230 सीटें जीतीं, लेकिन बूढ़े प्रेसिडेंट ने फिर भी Adolf Hitler को चांसलर नहीं बनाया, लेकिन जिसे बनाया वो भी असफल रहा और नवंबर में फिर इलेक्शन कराना पड़ा। इस बार नाजियों की सीटें कम होकर 196 रह गईं। पार्लियामेंट में अब भी इनका बहुमत था, लेकिन बूढ़ा प्रेसिडेंट डटा हुआ था और हिटलर को चांसलर बनाने पर तैयार नहीं था। उस समय जो व्यक्ति जर्मनी का चांसलर था, इसका नाम था Franz von Papen. नया चांसलर भी देश के हालात ठीक ना कर सका। बिगड़ते हालात देखकर Franz von Papen की हिम्मत जवाब दे रही थी।

Franz von Papen (Photo credit Britanica)
Franz von Papen (Photo credit Britanica.com)

Franz von Papen, सोचने लगा कि अब Adolf Hitler को चांसलर बना देना चाहिए। इसने प्रेसिडेंट को विश्वास दिलाने के लिए लॉबिंग शुरू कर दी। प्रेसिडेंट का ही ऐतराज था कि हिटलर सत्ता में आ गया, तो इसे तानाशाह बनने से कौन रोकेगा?

आखिरकार काफी वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि Adolf Hitler जर्मनी का चांसलर और Franz von Papen ‘Vice-chancellor’ होगा ताकि हिटलर को तानाशाह बनने से रोका जा सके। इस फॉर्मूले के तहत 30 जनवरी 1933 को हिटलर को चांसलर बना दिया गया और Franz von Papen को Vice-chancellor.

लेकिन, हिटलर के चांसलर बनने से सिर्फ 1 माह पहले एक 52 वर्षीय यहूदी स्तिथ को भांपकर चुपके से देश से निकल गया था। यह वही व्यक्ति था, जिसे बाद में इजराइल का प्रेसिडेंट बनने की भी पेशकश की गई, लेकिन इसने आदर के साथ इसे ठुकरा दिया। यह बीसवीं सदी का सबसे बड़ा साइंटिस्ट था और इसका नाम था “अलबर्ट आइन्स्टीन (Albert Einstein)”.

Albert Einstein (Photo credit Amar Ujala)
Albert Einstein (Photo credit Amar Ujala)

हिटलर ने चांसलर बनने के 4 सप्ताह के बाद फिर पार्लियामेंट के इलेक्शन का ऐलान कर दिया क्योंकि वो अपनी सीटें बढ़ाना चाहता था। इलेक्शन की तैयारियां जारी थीं कि 27 फरवरी को जर्मन पार्लियामेंट की ईमारत को आग लगा दी गई। आग लगाने वाला एक कम्युनिस्ट था। हिटलर ने इस घटना का फायदा उठाया और कम्युनिस्टों के खिलाफ प्रोपेगेंडा करके अधिक से अधिक वोटरों को अपने साथ मिला लिया।

05 मार्च को इलेक्शन हुए, तो नाजियों ने 647 सीटों में से 288 सीटें जीत लीं। 23 मार्च 1933 को Adolf Hitler ने जर्मन पार्लियामेंट से एक तानाशाह जैसे अधिकार हासिल कर लिए।

हिटलर ने अधिकार मिलते ही देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबन्ध लगा दिए। ट्रेड यूनियंस खत्म कर दिए। विरोधी अखबारों को बंद करा दिए और नाजी दृष्टिकोण से सहमति ना रखने वाली किताबों को जलाना शुरू कर दिया, लेकिन हिटलर की राह में अभी एक आखिरी रुकावट बाकी थी।

Ernst Röhm (Photo credit Youtube)
Ernst Röhm (Photo credit Youtube)

एक व्यक्ति था “Ernst Röhm” हिटलर के संगठन (S.A) का कमांडर और इसका काम था हिटलर के विरोधियों के समारोह पर हमले कराना। यह हिटलर का साथी था, लेकिन अब हिटलर को इससे ज्यादा जरुरत जर्मन फौज की थी और जर्मन फौज इस व्यक्ति से बहुत नाराज थी क्योंकि जर्मन जनरैल को लगता था कि Ernst Röhm (S.A) की मदद से देश पर कब्जा करना चाहता है। इसलिए वो Ernst Röhm को हर सूरत रास्ते से हटाना चाहते थे।

हिटलर ने जरनैलों को साथ मिलाने के लिए Ernst Röhm को हटाने का इरादा बना लिया। 30 जून 1934 की रात हिटलर के निजी सुरक्षा गार्ड जो SS कहलाते थे और ब्लैक शर्ट पहनते थे, उन्होंने ने Ernst Röhm समेत 400 और लोगों की हत्या कर दी। यह हत्या होने वाले वो लोग थे, जिन्हे हिटलर ना पसंद करता था या जिन्हे फौज अपने लिए खतरा समझती थी। इस रात को “Night of the Long Knives” यानि लम्बे चाकुओं की रात कहा जाता है।

इस कत्ल-ए-आम से फौज और हिटलर के संबंध ठीक हो गए। घटना के तीन दिन बाद हिटलर ने वाइस चांसलर Franz von Papen को भी घर भेज दिया। यूँ सब समझ गए हिटलर को राजनीतिक तौर पर कंट्रोल करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी हो गया है।

Ernst Röhm को रास्ते से हटाने के बाद भी हिटलर ने SA को खत्म नहीं किया, बल्कि इसे नए कमांडरों के जरिये चलाता रहा। SA की खुफिया पुलिस जो “Gestapo” कहलाती थी। वो हिटलर के विरोधियों को कुचलने के लिए सबसे आगे और बदनाम थी।

1934 में “Paul von Hindenburg” की मौत के बाद Adolf Hitler जर्मनी का प्रेसिडेंट भी बन गया और फौज का कमांडर इन चीफ भी। जल्द ही इसने चांसलर और प्रेसिडेंट के अलग-अलग वोहदे खत्म करके एक ही वोहदा बना लिया और इस नए वोहदे का नाम था “Führer” जिसका अर्थ होता है “लीडर”।

विरोधी पार्टियों पर प्रतिबन्ध लग चुका था। पार्लियामेंट हिटलर को सारे अधिकार सौंप चुकी थी। अब इलेक्शन की जरुरत थी ना पार्लियामेंट की। “Führer” अब आल इन आल था। हिटलर के आदेश पर तमाम अदालतों और पुलिस को नाजी पार्टी के कंट्रोल में दे दिया गया। जजों को हिटलर से वफादारी के लिए खासतौर पर सपथ भी लेनी पड़ती थी।

हिटलर के बारे में एक और दिलचस्प हकीकत जिसे कम लोग जानते हैं, यह है कि हिटलर का कोई कमाई का साधन नहीं था। वो पार्टी फंड से गुजारा करता था। सत्ता सँभालने के बाद इसने तमाम सरकारी संस्थानों के लिए अपनी Book “Mein Kampf” खरीदना अनिवार्य कर दिया। 1939 तक किताब की 50 लाख कापियां बिकी और रॉयल्टी मिली हिटलर को।

अपने शासन काल के दौरान Adolf Hitler ने 5 अरब डॉलर्स की सम्पत्ति बनाई, लेकिन हिटलर ने सिर्फ अपने लिए सम्पत्ति नहीं बनाई बल्कि जनता पर भी दिल खोलकर खर्च किया। इसने स्कूलों और अस्पतालों समेत बेशुमार इंस्टीटूशन्स खोले और किसानों को सब्सिडीज दी।

हिटलर की सत्ता के शुरुआती वर्षों में ही यहूदियों को छोड़कर जर्मनी में कोई बेरोजगार नहीं रहा था। इस खुशहाली ने जर्मन नागरिकों को असलीयत में हिटलर का दीवाना बना दिया था और यही वो बात थी, जो हिटलर की असल कामयाबी की वजह बनी।

बहरहाल धन और अधिकार हासिल करने बाद जब जर्मनी में हिटलर का कोई राजनीतिक प्रतिद्वंदी ना रहा, तो इसने विदेशी ताकतों को हर्जाने की अदायगी रोक दी। जिससे सरकार के पास विकास कार्यों के काफी पैसा आ गया। वो उस समय की लीग ऑफ नेशन से निकल गया और तामाम विश्व समझौते भी खत्म कर दिए। The Great Depression से संभलने की कोशिश करती हुई पश्चिमी ताकतें इसके खिलाफ कोई कार्यवाही ना कर सकीं।

जर्मनी पर प्रथम विश्व युद्ध के बाद अपना जहाजी बेड़ा तैयार करने पर भी प्रतिबंध था, लेकिन 1935 में हैरतअंगेज तौर पर बर्तानिया ने जर्मनी को जहाजी बेड़ा तैयार करने की इजाजत दे दी। इसी साल जर्मनी ने अपनी फौज की तादात भी पाँच गुना बढ़ाकर पाँच लाख कर दी। 18 से 25 साल के सब जर्मनों के लिए फौजी ट्रेनिंग भी अनिवार्य कर दी गई।

इन कामों से फ्री होकर हिटलर ने ‘यहूदियों’ को कुचलना शुरू किया। पहले इसने यहूदियों के खिलाफ कानून बनाये। यहूदियों की जर्मनों से शादी, वोटिंग और नौकरी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

1936 में बर्लिन ओलिंपिक में भी यहूदी एथलीट हिस्सा नहीं ले सके, लेकिन ओलिंपिक प्रतियोगिता के द्वारा हिटलर दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहा कि जर्मनी एक शांतिपूर्ण और विकसित देश है। जर्मनी ने 43 गोल्ड मेडल्स हासिल करके ओलंपिक्स में कमाल कर दिया।

ओलंपिक्स के बाद भी यहूदियों के खिलाफ हिटलर का कठोर रवैया जारी रहा। बच्चों के दिमाग में यहूदियों के खिलाफ नफरती जहर घोला गया। बच्चों को एक खास गिरोह से नफरत करना सिखाया गया। हिटलर पर 60 लाख यहूदियों की हत्या कराने का भी आरोप है। जिसे पश्चिम में “Holocaust (प्रलय)” के नाम से याद किया जाता है।

Sigmund Freud
Sigmund Freud

हिटलर के अत्याचारों का निशाना बनने वालों में ऑस्ट्रिया का एक न्यूरोलॉजिस्ट भी था। जिसे बाद में जिला वतन कर दिया गया और यह व्यक्ति था विश्व प्रसिद्ध “Sigmund Freud”.

लेकिन, क्या आप जानते हैं कि यहूदियों से इतनी नफरत करने वाले हिटलर के डीएनए (DNA) से क्या पता चला? वो यह है कि हिटलर का ‘डीएनए’ अफ्रीका के बर्बर कबीले और और यहूदियों से भी मिलता है। यही नहीं इसकी मेहबूबा “Eva Braun” भी यहूदी नस्ल से थी, लेकिन हिटलर को यह सब नहीं पता था। वो खुद को जर्मन समझकर यहूदियों के खिलाफ कार्यवाहियां करता चला गया और साथ ही साथ युद्ध की तैयारियां भी जारी रखीं और एक दिन इसने फ्रांस पर हमला कर दिया और दुनिया की शांति उलट-पलट हो गई।

Adolf Hitler ने फ्रांस पर हमला क्यों किया? और कौन से लीडर थे, जो हिटलर के डर से बेहोश हो गए? और वो कौन था, जो हिटलर के सामने डट गया? क्या हिटलर ने खुदकुशी की थी? या वो कहीं मुँह छिपाकर बैठा था? हिटलर की लाश कहाँ गई? रूस के ठंडे नर्क में जर्मन फौजों पर बीतने वाली सुबह-शाम की कहानी भी आपको बताएँगे, लेकिन Adolf Hitler कौन था? के आगे भाग यानि पार्ट-2 में।

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