Karl Marx Kaun Tha?

यूनानी देव माला ग्रीक मैथोलॉजी में एक देवता है ‘प्रोमेथियस’ (Prometheus). दास्तान है कि वो बहुत अक्लमंद था। उसने एक बार देवताओं के राजा ज्यूस (Zeus) से आग चुराकर इंसानों को इसका इस्तेमाल सिखा दिया। इस पर ज्यूस को इतना गुस्सा आया कि उसने प्रोमेथियस को एक पहाड़ी से बांध दिया और उस पर एक गिद्ध को हावी कर दिया। यह गिद्ध प्रोमेथियस का पेट चीरकर उसका जिगर निकालता और खा जाता, लेकिन प्रोमेथियस का यह जख्म फिर भर जाता। गिद्ध दुबारा जख्म लगाता, दुबारा जिगर निकालता और फिर खा जाता यानि प्रोमेथियस लगातार एक ना खत्म होने वाली यातना का शिकार था, लेकिन फिर यूँ हुआ कि यूनानी देव माला के एक और हीरो “हरकुलिस” जिसे रोमन मैथोलॉजी में (Hercules) भी कहते हैं, उसने प्रोमेथियस को इस यातना से छुटकारा दिलाया।

इस कहानी में प्रोमेथियस लगातार यातना की पीड़ा से गुजरता रहा, लेकिन उसने एक बार भी इंसानों की मदद करने पर देवताओं से माफी नहीं मांगी। इसी वजह से प्रोमेथियस इंसानियत (Humanity) और अपने वसूलों के लिए डट जाने की निशानी बन गया।

दोस्तों, यूनानी देव माला का यही हीरो एक बहुत बड़े फलसफी (दार्शनिक) का आइडियल था। जैसे प्रोमेथियस ने दूसरे देवताओं को ललकारा था, वैसे ही इस फलसफी ने भी उस वक्त के जमीनी देवताओं को ललकारा और दुनिया भर के गरीबों को मुक्ति की राह दिखाने की कोशिश की।

प्रोमेथियस ही की तरह उसे भी जिंदगी भर सख्त तकलीफ का सामना रहा। देश निकाला, जेल में बंदी, अपने बच्चों की मौत और गरीबी की यातनाओं से वो भी गुजरता रहा, लेकिन इन सब पर वो तमाम उम्र कभी नहीं पछताया, बल्कि वो इंकलाब (क्रांति) के लिए लड़ता रहा। उस महान फलसफी (दार्शनिक) को आज दुनिया Karl Marx (कार्ल मार्क्स) के नाम से जानती है। आज के इस आर्टिकल में हम आपको दुनिया के इसी ग्रेट फ़िलॉसफ़र की बायोग्राफी बता रहे हैं।

Karl Marks Biography In Hindi | कार्ल मार्क्स का शानदार जीवन परिचय

नाम Karl Marx (कार्ल मार्क्स)
जन्म 5 मई 1818
ट्रीविज़, प्रशा
मृत्यु 14 मार्च 1883 (उम्र 64)
लंदनब्रिटेन
धार्मिक मान्यता ईसाई; बाद में धर्म त्याग दिया (नास्तिक)
जीवन साथी जेनी वेस्टफेलन
बच्चे एलेनोर मार्क्स, हेनरी एडवर्ड गाय मार्क्स, लौरा मार्क्स, एडगर मार्क्स, जेनी मार्क्स लॉन्गुएट, जेनी एवलिन फ्रांसेस मार्क्स
राष्ट्रीयता जर्मन, प्रशिया
शिक्षा जेना विश्वविद्यालय (1841), बॉन विश्वविद्यालय जर्मनी
सबसे अच्छा दोस्त फ्रेडेरिक एंगेल्स
लोकप्रिय पुस्तक दास कैपिटल
Trier city (Germany)
Trier city (Germany)

कार्ल मार्क्स कौन था? पार्ट – 1 

दोस्तों, ऊपर तस्वीर में आप जिस शहर को देख रहे हैं. यह जर्मनी का प्रश्चिमी शहर ट्राएर (Trier) है जो बेल्जियम और फ्रांस की सरहद के बिलकुल करीब सर-सब्ज (हरे-भरे) पहाड़ी इलाके राइनलैंड (Rhineland) में स्थित है। इस शहर के अंदर एक तंग गली के तीन मंजिला मकान में 05 मई 1818 में कार्ल मार्क्स ने आँख खोली

Karl Marx Birth Place House
Karl Marx Birth Place House

कार्ल मार्क्स जिस दौर में पैदा हुआ, उस दौर में यूरोप के हर दूसरे घर में इंकलाब जिंदाबाद-इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंजा करते थे। यह इंकलाबी नारे इसलिए गूंजा करते थे क्योंकि कार्ल मार्क्स की पैदाइश से सिर्फ 29 वर्ष पहले जर्मनी के पड़ोसी देश फ्रांस में एक जबर्दश्त इंकलाब आ चुका था। उस इंकलाब के जरिये फ्रांस में सदियों से हुकूमत करने वाले Bourbon Royal Family का तख्ता जनता ने उलट दिया। उस इंकलाब से फ्रांस के शाही परिवार समेत उस  संप्रदाय की ठेकेदारी (Monopoly) भी खत्म हो गई थी, जो राजा के साथ मिलकर सदियों से जनता का शोषण कर रहा था। इस बदलाव से पूरा यूरोप प्रभावित था जनता भी और हुक्मरान (शासक) भी।

जनता इसलिए प्रभावित थी कि वो सोचती थी कि अगर ऐसा फ्रांस में हो सकता है, तो उनके यहाँ यह बदलाव क्यों नहीं आ सकता? और शासक क्यों परेशान थे? वो भी इसीलिए कि अगर फ्रांस में राजा की गर्दन कटने से कोई नहीं रोक सका, तो उनके देश में ऐसा होने से कौन रोकेगा? वो इसलिए ऐसा सोच रहे थे कि फ्रांसीसी क्रांति में क्रांतिकारियों ने “King Louis XVI” और उसकी रानी की गर्दनें उतार दी थीं।

तो यूरोप का यही माहौल था, जिसमे यूरोपीय देशों की जनता ने अपने शासकों के खिलाफ अलग-अलग आंदोलन चला रखे थे। इन क्रांतिकारी आंदोलनों के जरिये यूरोपीय जनता की बड़ी तादात खासतौर पर फैक्टरियों में काम करने वाला मजदूर तबका अपने अधिकारों की जंग लड़ रहा था। ये लोग राजा और चर्च की अथॉरिटी को चैलेंज कर रहे थे। उनकी मांग थी कि उन्हें असेम्बलियों में प्रतिनिधित्त्व दिया जाय। मीडिया पर हुकूमती पाबंदी खत्म किया जाय। लिखने और बोलने की पूरी आजादी हो और राजा के अधिकारों को सीमित करके सियासी फैसलों में जनता को भी शामिल किया जाय। दूसरे शब्दों में उन्नीसवीं सदी दर असल यूरोप में लोकतंत्र और उदारतावाद के उदगम की सदी थी।

तो, यही वो क्रांति का उन दिनों यूरोप में माहौल था दोस्तों, जिसमे Karl Marx पैदा हुआ और वो परवान चढ़ा। यह इसी क्रांतिकारी माहौल का असर था, जिसने कार्ल मार्क्स को भी एक क्रांतिकारी दार्शनिक बना दिया था, लेकिन मार्क्स की क्रांतिकारी शिक्षा में उसके माहौल के साथ-साथ उसके घर के हालात और पारिवारिक बैकग्राउंड ने भी बहुत अहम किरदार अदा किया।

Karl Marx का घराना नस्ल (ब्रीड) यहूदी था और काफी लम्बे समय से ट्राएर शहर में रहता था। मार्क के दादा-परदादा यहूदियों के रब्बी यानि रूहानी पेशवा थे और यही उनका पेशा था, लेकिन मार्क्स के पिता ने यह पेशा छोड़कर वकालत को अपना लिया। उनकी वकालत खूब चमकी और काफी दौलतमंद भी वो हो गए, बल्कि जर्मनी के एलीट क्लास में भी उनके रिलेशनशिप बन चुके थे। उस दौर में जर्मनी समेत पूरे यूरोप में यहूदियों से नफरत करना और उनके लिए खास कानून बनाकर उनसे भेद-भाव करने का आम चलन था।

1815 में Karl Marx के माता-पिता भी एक ऐसे ही भेद-भाव का शिकार हो चुके थे। वो यूँ कि रियासत प्रशिया (Prussia) जिसकी सीमा में ट्राएर और राइनलैंड शामिल थे, उसने एक विवादित कानून बनाया। इस कानून के तहत यहूदियों को एलीट जर्मन सोसायटी में उठने-बैठने की इजाजत ही नहीं थी।

यह कानून यहूदियों के लिए बहुत खतरनाक था क्योंकि इसने उनके लिए तरक्की के सारे रास्ते बंद कर दिए थे। इस कानून की वजह से कार्ल मार्क के माता-पिता के पास अब 2 ही रास्ते बाकी बचे थे। एक यह कि वो देश छोड़कर कहीं और चले जाएँ और दूसरा यह कि वो अपना धर्म बदलकर ईसाइयत कबूल कर लें ताकि उन पर जो पाबंदियां लगी हैं, वो खत्म सकें।

Karl Marx के पिता Heinrich Marx ने देश को धर्म पर प्रधानता दी और अपना धर्म बदल लिया यानि वो यहूदियत छोड़कर ईसाइयत में शामिल हो गए। अलबत्ता उन्होंने ईसाईयों के कैथोलिक वर्ग को अपनाने के बजाय प्रोटेस्टेड ईसाइयत को चुना। इसकी वजह यह थी कि उनके विचार में प्रोटेस्टेड वर्ग के लोग कैथोलिक से ज्यादा लिबरल थे। हालांकि राइनलैंड और ट्राएर में कैथोलिक वर्ग बहुमत में था और प्रोटेस्टेड की तादात बहुत कम थी। इसके बावजूद Karl Marx के पिता ने प्रोटेस्टेड वर्ग को चुनना मुनासिब समझा।

धर्म बदलने के बावजूद कार्ल मार्क्स के घराने से दोस्तों यहूदियत का लेवल फिर भी ना हट सका और जर्मन सोसाइटी में उन्हें नफ़रत की नजर से देखा जाता रहा। इसलिए बचपन से ही उसके दिमाग में धार्मिक बुनियादों पर भेदभाव के खिलाफ एक बागीना रवैया परवरिस पा रहा था।

धार्मिक बुनियादों पर भेदभाव के अलावा, मार्क्स को अपने पिता से क्रन्तिकारी विचारधारा भी विरासत में मिली थी क्योंकि उसके पिता भी फ्रांस की क्रांति से प्रभावित थे और एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक क्रांति के लिए जद्दोजहद (प्रयास) भी कर रहे थे। उन्होंने ने कुछ संगठन भी ज्वाइन किये थे और सरगर्मियों में नियमित हिस्सा लेते थे।

मार्क्स के पिता ने घर में एक अच्छी खासी लाइब्रेरी भी बना रखी थी, जिसमे Jean-Jacques Rousseau (रूसो) और उन जैसे दूसरे महान दार्शनिकों की किताबें मौजूद थीं। इसी लाइब्रेरी में कार्ल मार्क्स ने ग्रीक और रोमन मैथोलॉजी को भी शौक से गौर से पढ़ा और संभवतः यहीं उसने ‘प्रोमेथियस’ की वो कहानी भी पढ़ी, जिसने उस में मानवता के लिए कष्ट सह कर कुछ करने का जज्बा पैदा किया।

शो, एक परिवर्तन या क्रांति की इच्छा Karl Marx को अपने घर से ही मिलने लगी थी। हालाँकि वो बचपन में क्रांतिकारी से ज्यादा शरारती था। वो अपनी बहनों को बहुत तंग करता था। कभी उनके कन्धों पर सवार होकर उन्हें दौड़ने पर मजबूर करता और कभी कीचड़ से केक बनाकर उन्हें कहता कि ये खा कर दिखाओ।

Karl Marx के माता-पिता ने 12 वर्ष की उम्र तक उसे स्कूल नहीं और उसे घर ही में पढ़ाते रहे, लेकिन जब वो 12 वर्ष का होकर स्कूल जाने लगा, तो उसे पहली बार एहसास हुआ कि दुनिया उसके उच्च मध्यम वर्ग (Upper middle class) घर से काफी मुश्किल जगह है। फिर वो जैसे-जैसे बड़ा होता गया। अपने ही गली-कूंचो में गरीबी के मारे लोगों को देखकर दिल जलाने का हुनर भी सीख गया।

दोस्तों, जिस दौर की हम बात कर रहे हैं, उस समय पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रांति (Industrial revolution) का आगाज हो चुका था, लेकिन Karl Marx के शहर Trier में फैक्टरियां नहीं लग रही थीं। उस शहर की इकोनॉमी अभी तक पुरानी प्रणाली एग्रीकल्चर पर बेस्ड थी। शहर के आस-पास अंगूर के बड़े-बड़े बाग़ थे और ज्यादतर लोग इन्ही बागों में काम करते थे।

यह शहर तरक्की में जर्मनी के दूसरे शहरों से बहुत पीछे था। इसलिए यहाँ गरीबी और बेरोजगारी भी बाकी शहरों से कुछ ज्यादा थी। यहाँ तक कि शहर में भिखारियों और जिस्म फरोसों की बहुतायत हो चुकी थी। शहर के एक चौथाई लोग भीख मांगने पर मजबूर थे। Trier के लोग इस गरीबी से जान छुड़ाना चाहते थे, लेकिन समस्या यह थी कि सरकार और व्यवसायी तबका उनकी तरक्की में रुकावट बन चुका था।

सरकार गरीबों पर टैक्स बढ़ा रही थी, जबकि अमीर तबका जिसके बागों में यह गरीब लोग काम करते थे, वो इनकी मेहनत का मुनासिब दाम तक इन्हे देने के लिए तैयार नहीं थे। इसका परिणाम यह था कि गरीबों की आमदनी कम से कम हो रही थी और मंहगाई ज्यादा से ज्यादा। आम आदमी गरीब से और गरीब, जबकि धनी लोग अमीर से और अमीर होते जा रहे थे।

धन के बंटवारे में इतनी बड़ी ना इंसाफ़ी कार्ल मार्क्स के ख़ुद्दार दिलो-दिमाग में गहरी उतर चुकी थी। अपने शहर में एक और बात जो कार्ल मार्क्स ने नोट की, वो धन के अन्यायपूर्ण बटवारे से भी ज्यादा अहम थी। उसने महसूस किया कि गरीब जनता धनी समुदाय की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए बेकरार है। वो इसके लिए कोशिश भी कर रहे थे।

असल में ट्राएर शहर फ्रांस के बहुत करीब था और फ्रांस क्रांति से बहुत ज्यादा प्रभावित था। इसलिए यहाँ कई छोटे-छोटे क्रांतिकारी संगठन सरगर्म थे, लेकिन सरकारी कार्यवाइयों के डर से तमाम संगठन छुपकर अंडरग्राउंड काम करते थे क्योंकि यह यूरोप में ऐसा वक्त था, जब डेमोक्रेसी की बात करना और राजशाही का खुलेआम विरोध करना जुर्म था। ऐसा करने वालों को राज्य का बागी करार देकर गिरफ्तार कर लिया जाता था। इसी वजह से मजदूरों और छात्रों ने अपने खुफिया संगठन बना रखे थे।

यह क्रांतिकारी लोग परिवर्तन चाहते थे और इस परिवर्तन के लिए उस वक्त दो दृष्टकोण समाजवाद (Socialism) और अराजकतावाद (Anarcissism) स्वीकृत हो रहे थे। समाजवादी दृष्टिकोण के समर्थक ऐसी सरकार चाहते थे, जो मजदूरों के अधिकार की रक्षा करे। जबकि अराजकतावाद के समर्थक राज्य ही को खत्म करने के हामी थे ताकि सारी जनता बराबर होकर काम करें और कोई किसी पर हुकम चलाने वाला ना हो। सारी जनता आजादी से अपनी जिंदगी गुजारें। तो यह दो दृष्टकोण उन दिनों स्वीकृत हो रहे थे।

सरकार इन सब परिवर्तन चाहने वालों पर गहरी नजर रखे हुए थी। एजुकेशनल इंस्टीटूशन और तफ्तरों की कड़ी निगरानी हुआ करती थी और आये दिन यूनियन के खुफिया मीटिंग्स पर छापे पड़ते रहते थे, जिनमे स्टूडेंट, टीचर्स और अलग-अलग लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता और सरकार के खिलाफ लिटरेचर वगैरह बरामद होने का दावा भी किया जाता।

अब एक तो क्रांतिकारियों को शाही ताकत रोकती थी, लेकिन राजा के साथ दूसरी बड़ी ताकत धार्मिक समुदाय था। चर्च के लोग क्रांति के खिलाफ प्रोपेगेंडा करते और जनता को राजा और गिरजाघरों की आज्ञापालन का उपदेश देते।

शहर का मुख्य धर्माध्यक्ष (Archbishop) Saint-Simon जैसे समाजवादी दार्शनिक के खिलाफ सख्त भाषण देता और लोगों को उसके दर्शन से दूर रहने के लिए वो आवाज दिया करता था, लेकिन यूँ था कि राजा के दबाव और पादरी के आवाज के बावजूद शहर में क्रांतिकारी विचारधारा धीरे-धीरे फैलती ही जा रही थी।

जब Karl Marx ने स्कूल में कदम रखा तो वहां भी उसका वास्ता क्रांति ही से था। स्कूल के प्रिंसिपल ज्यादातर शिक्षक और छात्र भी क्रांतिकारी दृष्टिकोण से प्रभावित थे। इसीलिए यह स्कूल खुफिया पुलिस की लिस्ट में भी शामिल था और शादी वर्दी में लोग इसकी निगरानी करते थे। वो छापे वगैरह मारकर छात्र और शिक्षकों को गिरफ्तार करते रहते थे।

लेकिन, स्कूल लाइफ में कार्ल मार्क्स कभी क्रांतिकारी सरगर्मियों में शामिल ही नहीं हुआ। उसकी क्रांतिकारी विचारधारा उस वक्त जाहिर हुई, जब वो एक दूसरे शहर Bonn की यूनिवर्सिटी में कानून और दर्शनशास्त्र पढ़ने के लिए गया। यहाँ उसका बागियाना रवैया पहली बार सामने आया। उसे जेल भी जानी पड़ी।

Bonn University
Bonn University

Bonn University के 17 वर्षीय कार्ल मार्क्स में काफी परिवर्तन आ चुका था। वो शराब पीने, माँ-बाप की कमाई को अय्यासी में उड़ाने और दोस्तों से उधार मांगने का आदी हो गया था। उसने एक शराबियों का गैंग बना लिया था। कार्ल मार्क्स इस गैंग का मुखिया था और यह गैंग हुड़दंग मचाने और मारपीट करने में खासा बदनाम था।

एक बार ऐसा हुआ कि Karl Marx नशे की हालत में हंगामा करते हुए रंगे हाँथो पकड़ा गया। Bonn University ने शराबी छात्रों को सजा देने के लिए एक कमरे की छोटी सी जेल बना रखी थी। जिस छात्र को सजा देना होता, उसे 24 घंटे के लिए उस कमरे में बंद कर दिया जाता था। मार्क्स को भी यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट ने उसी जेल में बंद कर दिया।

अब दोस्तों, जेल में कार्ल मार्क्स सुधरता तो क्या, उसके दोस्त किसी तरह यहाँ भी पहुँच गए और सब ने रात भर ताश और बियर की महफिल सजाई। शो, 24 घंटे बाद कार्ल मार्क्स रिहा हुआ, तो जाहिर है वैसे का वैसा था।

Bonn University में रहते हुए उसे Trier की याद भी बहुत सताती थी क्योंकि वहां सुर्ख बालों, सब्ज आँखों वाली उसकी गर्ल फ्रेंड जेनी रहती थी।

Jenny wife of Karl Marx
‘Jenny’ wife of Karl Marx

फासलों ने बचपन की इस दोस्ती को मोहब्बत में बदल दिया था और कार्ल मार्क्स जेनी की याद में कविताएं लिखने लगा था। उसने जेनी से शादी का वादा भी कर रखा था, लेकिन दोस्तों जल्द ही यूँ हुआ कि कार्ल मार्क्स के जाम उठाते, कविताएं लिखते हाँथों ने हथियार थाम लिए।

Bonn University में ही मार्क्स ने एक क्रांतिकारी संगठन ज्वाइन कर लिया। उस दौर में यानि 1830 की दहाई में जर्मन यूनिवर्सिटीज में कई तरह के छात्र संगठन मौजूद थे। इनमे कुछ ऐसे थे, जो सरकार का समर्थन करते थे और क्रांति के हामी छात्रों के खिलाफ थे और कुछ क्रांतिकारी थीं।

तो इन संगठनों में एक बड़ा और ताकतवर संगठन जो सरकार के साथ था, वो Borussia Corps था। इस संगठन के छात्र क्रांति के समर्थकों पर हमले करते थे। कार्ल मार्क्स और उसका संगठन भी उनका निशाना था। इसलिए कार्ल मार्क्स ने इस संगठन के हमलों से बचने के लिए अपने पास पिस्टल रखना शुरू कर दिया था, बल्कि वो अपने साथियों को भी इंस्ट्रक्शन देता था कि वो भी अपने पास असलहा रखा करें ताकि उन्हें कोई नुकसान पहुँचाने आये तो वो अपना बचाव कर सकें।

इसी दौरान एक ऐसी घटना भी हुई जिसके बारे में दोस्तों आज बहुत कम लोग जानते हैं। वो घटना यह थी कि Karl Marx को Borussia Corps के एक नौजवान ने द्वंद्वयुद्ध (Duel) का चैलेंज दे दिया।

उस वक्त के माहौल में जब दो लोग एक-दूसरे का वजूद भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होते थे, तो इसी तरह के चैलेंजेस दिया करते थे क्योंकि इस मुकाबले में एक ही व्यक्ति जिन्दा बच सकता था। यह लड़ाई रिवाल्वर से भी लड़ी जाती थी और तलवारों से भी।

आपने वेस्टर्न मूवीज में Duels (युगल) सीन जरूर देखे होंगे, जिसमे कमर से कमर लगाए दो लोग हथियार पकड़े खड़े होते हैं। तो कार्ल मार्क्स की फाइट भी कुछ इसी तरह का मुकाबला था। इस लड़ाई में उसकी जान भी जा सकीती थी क्योंकि मुकाबले पर जो लड़का था, वो कार्ल मार्क्स से कहीं ज्यादा लड़ाका और होशियार था। यह फाइट हुई दोस्तों, लेकिन खुशकिस्मती से इसमें दोनों की जान बच गई। कार्ल मार्क्स की बाईं आँख पर एक घाव तो आया, लेकिन पास खड़े लोगों ने बीच-बचाव करवा कर फाइट बीच में ही खत्म कर दी। शो, कार्ल मार्क्स सिर्फ इत्तेफाक से जिन्दा रहा।

लेकिन, इस द्वंद्वयुद्ध की खबर जब मार्क्स के माता-पिता तक पहुँची, तो वो घोर सदमे का शिकार हुए और उन्होंने मार्क्स को एक नाराजी भरा खत लिखा। खत में उन्होंने मार्क्स से पूछा कि क्या डुएल की इस लड़ाई का फलसफा से कोई करीबी संबंध हैं। उन्होंने लिखा ऐसी किसी बेवकूफी को अपने दिमाग से दूर रखो क्योंकि अगर दुबारा तुमने ऐसी बेवकूफी की तो तुम और तुम्हारे माँ-बाप जिंदगी से वंचित हो जाएंगे। मार्क्स ने पिता की यह दुख भरी नसीहत हवा में उड़ा दी। उसने अपनी सरगर्मियां पहले ही की तरह जारी रखी।

एक बार मार्क्स German city Cologne गया। उसका पिस्टल भी उसके पास था। शहर में पुलिस ने उसकी तलाशी ली और उसके पास से पिस्टल बरामद हो गया। समस्या यह थी कि यह पिस्टल गैर कानूनी था, जिसकी वजह से अब मार्क्स को लेने के देने पड़ गए थे। पुलिस ने मार्क्स को हिरासत में लेकर अदालत में पेश कर दिया। अगर यह मुकदमा स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़ता तो Karl Marx को लम्बे समय तक जेल की हवा खाना पड़ती और उसके सारे क्रांतिकारी इरादे चकनाचूर हो जाते, लेकिन इस मौके पर मार्क्स के पिता ही एक बार फिर काम आये।

आप जानते हैं कि Karl Marx के पिता Heinrich Marx एक कामयब वकील थे। उनकी पहुँच ऊपर तक थी। तो जब Heinrich Marx को यह पता चला कि उनका बेटा गैर कानूनी असलहे के जुर्म में पकड़ा गया है, तो उन्होंने तुरंत एक्शन लिया। उन्होंने पता करवाया कि मार्क्स का केस किस जज की अदालत में चल रहा है?

फिर उन्होंने जज के नाम एक खत लिखा और अपना परिचय करवाने के बाद जज से दरखास्त की कि मार्क्स के इस जुर्म को उसकी नादानी समझकर माफ़ कर दिया जाय। जज को यह खत मिला, उन्होंने पढ़ा और Karl Marx के पिता की सिफारिश को वैल्यू देते हुए मुकदमा आगे नहीं बढ़ाया। इस तरह एक बार फिर कार्ल मार्क्स की जान समय रहते बच गई।

तो दोस्तों, इस तरह नौजवान कार्ल मार्क्स का Bonn University का पहला साल उस पर और उसके परिवार पर काफी भारी रहा। यूनिवर्सिटी से उसके बारे में लगातार शिकायतें उसके घर पहुँच रही थीं। मार्क्स के पिता समझ रहे थे कि Bonn University में मार्क्स जिन लोगों की सांगत में है, वो उसे तबाह करके ही छोड़ेंगे। इसलिए उन्होंने एक शख्त फैसला किया और मार्क्स को Bonn University से हटाकर जर्मनी के मौजूदा राजधानी बर्लिन भेजने का फैसला किया।

Heinrich Marx की कोशिशों से Karl Marx को Bonn University से Berlin University Shift कर दिया गया। जहाँ उसने कानून और फलसफे (दर्शन शास्त्र) की स्टडी करना शुरू कर दी।

बर्लिन में मार्क्स की बुरी आदतें तो छूट गईं, लेकिन अब उसका क्रन्तिकारी स्वाभाव पूरी तरह से जागरूक हो गया था। अब वो एक फड्डेबाज नौजवान की उम्र से आगे निकल आया था और कुछ बड़ा करना चाहता था। वो एक ऐसी व्यवस्था (सिस्टम) लाना चाहता था, जिससे पूरी मानवता फायदा उठाये, लेकिन उसके दिमाग में इस व्यवस्था (सिस्टम) की गुत्थी सुलझ नहीं रही थी।

उसके सामने पहला सवाल यह था कि एक ह्यूमन सोसाइटी में धर्म और किसी एक ताकतवर हस्ती का रोल कैसे निर्धारित किया जाय? दूसरा सवाल यह था कि जर्मनी में मीडिया या न्यूज पेपर्स पर सेंसरशिप की जो पाबंदिया लगी हुई हैं, उन्हें कैसे चैलेंज किया जाय? और फिर यह कि एक आजाद प्रेस एक आजाद मीडिया कैसे स्थापित हो? तीसरा और सबसे अहम सवाल यह था कि एक आइडियल सोसाइटी में मेहनत कश तबके का क्या किरदार होना चाहिए? यानि वो तबका (वर्ग) जिसकी मेहनत से पूँजीपती पूँजी कमाते हैं, वो समाज में कहाँ फिट आता है? इन तीनों सवालों के साथ दोस्तों एक चौथा और आखिरी सवाल भी था और वो यह था कि यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद पेशा कौन सा चयन करेगा? क्योंकि फलसफा (दर्शनशास्त्र) पढ़ने से पेट तो नहीं भरा जा सकता था।

शिक्षा के आखिरी पड़ाव में उसके पिता का निधन भी चुका था। जिसकी वजह से अब उसकी माँ अकेले ही घर चलाने का बोझ उठाये हुए थी। वो इस बात का इंतिजार कर रही थी कि कब कार्ल मार्क्स की पढ़ाई खत्म हो और कब वो अपने घर परिवार के लिए कुछ पैसे कमा कर लाना शुरू करे।

कार्ल मार्क्स के सामने एक मुश्किल यह भी थी कि वो अपनी मेहबूबा जेनी से शादी का वादा भी कर चुका था। जेनी के पिता ने साफ कह दिया था कि अगर जेनी से शादी करना है, तो पहले पढ़ाई पूरी करों यानि डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करो।

इस तरह दोस्तों, नौजवान कार्ल मार्क्स के सामने जिंदगी के सारे चैलेंजेस एक साथ आ खड़े हुए थे। उसे पढ़ाई पूरी करना था, जबकि वो एक एवरेज स्टूडेंट रहा था। उसे रोजगार तलाश करना था, लेकिन वो तो पूंजीपतियों ही के खिलाफ था। कार्ल मार्क्स ने इन चैलेंजेस को कैसे हैंडल किया और फिर उसने अपने देश जर्मनी को क्यों छोड़ दिया? यह सब हम आपको बताएंगे, लेकिन कार्ल मार्क्स कौन था? के दूसरे हिस्से में।

कार्ल मार्क्स कौन था? पार्ट – 2

Rhineland जंगल एमजे

यह राइनलैंड के घने जंगलों में से एक है। 1843 से पहले इन जंगलों पर अमीर लोगों का कब्ज़ा था। राइनलैंड के गरीब लोग किसी पेड़ से टहनी भी नहीं तोड़ सकते थे, लेकिन इन्हे सख्त शर्दी का मौसम गुजारने के लिए जमीन पर गिरी लकड़ियां चुनने की बहरहाल आजादी थी, लेकिन 1840 की दहाई की शुरू में यह हुआ कि एक जंगल का कानून पास हुआ।

इस कानून के मुताबिक जंगल के मालिकों के अलावा, कोई आदमी जमीन पर गिरी लकड़ियां भी नहीं चुन सकता था। जर्मन नसल के इलाके राइनलैंड में कानून के सरकार के नाम पर गरीबों को जीते जी मर दिया गया था, लेकिन अपने घरों को गर्म रखने और खाने-पीने की जरूरतों को पूरा करते हुए कई भूख से मरने वाले लोग जंगल के काले कानून की भेंट चढ़ गए। कुछ मारे गए और कुछ की जिन्दगियां नर्क बन गई, लेकिन इस जंगल के कानून ने डॉ. मार्क्स में से Karl Marx को जन्म दिया। इन जंगलों ने कार्ल मार्क्स को हमेशा के लिए कैसे बदलकर रख दिया? मार्क्स ने अपनी सब्ज आँखों वाली महबूबा से बेवफाई क्यों की? इस भाग में हम आपको यही सब बताने वाले हैं। तो चलिए जानते हैं।

कार्ल मार्क्स ने 1841 में University of Jena से Doctorate की डिग्री ली थी। डॉक्टरेट के बाद उसने नौकरी के लिए German city cologne का रुख किया था। जहाँ उसके कुछ लिबरल दोस्त एक Newspaper ‘Rheinische Zeitung’ निकाल रहे थे। न्यूज़ पेपर का Editor ‘Adolf Rutenberg’ भी उसका दोस्त था और एक शराबी ग्रुप Doctors’ Club का साथी भी रह चुका था, जिसका मार्क्स भी मेंबर था।

Adolf Rutenberg के अलावा भी मार्क्स के उन दिनों बहुत से फैन थे, जो दर्शनशास्त्र पर उसकी ग्रिप और उसकी क्रांतिकारी विचारधारा के दीवाने बहरहाल थे। मार्क्स में एक परिवर्तन उन दिनों यह आया था कि उसने यूनिवर्सिटी के दौरान दाढ़ी बढ़ा ली थी। इस दाढ़ी ने उसकी पर्सनालिटी में एक रौब सा पैदा कर दिया था और देखने वाले तुरंत ही उससे प्रभावित हो जाया करते थे।

दिलचस्प बात यह है कि मार्क्स की जीभ में थोड़ी प्रॉब्लम थी, लेकिन उसकी बा-रौब शख्सियत और मजबूत दलील (तर्क) के सामने बड़े-बड़ों के पित्ते पानी हो जाते थे। कई लोग तो उसकी पर्सनाल्टी से बा-कायदा खौफ भी खाने लगे थे। वो जिस महफिल में बैठता था, अक्सर वहां अपनी दबंग आवाज और तर्क की बुनियाद पर छा जाता था।

Cologne में Karl Marx ने Newspaper ‘Rheinische Zeitung’ के लिए कुछ आर्टिकल वगैरह भी लिखे। जिसके कुछ ही समय बाद उसे न्यूज पेपर में एडिटरशिप की जॉब ऑफर हो गई। इस ऑफर को कार्ल मार्क्स ने कबूल कर लिया।

मार्क्स का एडिटर बनना था कि अख़बार नई बुलंदियों को छूने लगा। उसकी डिमांड जल्द ही सैकड़ों से बढ़कर हजारों तक पहुँच गई। जल्द ही यह अखबार जर्मनी के तमाम लिबरल लोगों का पसंदीदा अखबार बन गया।

मार्क्स की एडिटरशिप में Rheinische Zeitung अख़बार कामयाबी के झंडे तो गाड़ रहा था, लेकिन इसके साथ-साथ कुछ प्रॉब्लम्स भी पैदा हो रही थीं। इन प्रॉब्लम्स की वजह यह थी कि Karl Marx अखबारों पर पाबंदियों को शख्त ना पसंद करता था। वो एक फलसफी (दार्शनिक) था। उसे आजाद रह कर सोचना, अपनी बात कहना और आजादी से दूसरों तक पहुँचाना ज्यादा मन भाता था।

बोलने की स्वतंत्रा पर किसी तरह की पाबन्दी उसे गवारा ही नहीं थी, लेकिन समस्या यह थी कि जर्मनी में तो सेंसरशिप के सख्त कानून लागु थे। सरकार ने ऐसे सरकारी मुलाजिम रखे हुए थे, जो हर अखबार को सेंसरशिप की छन्नी से गुजारते थे और इस दौरान जो खबर या आर्टिकल पसंद नहीं आता था, उसे निकाल बाहर करते थे यानि उसे वो छपने ही नहीं देते थे।

लेकिन, मार्क्स के लिए सेंसरशिप से भी ज्यादा कष्ट देने वाली बात यह थी कि सरकार ने जिन अफसरों को सेंसरशिप के लिए अपॉइंट कर रखा था, वो बिलकुल जाहिल (अशिक्षित और मूर्ख) थे। वो अखबारों और उनमे छपने वाले आर्टिकल्स को सिरे से समझ ही नहीं सकते थे। दर्शनशास्त्र की बारीकियां भी उनके दिमाग की अप्रोच से बहुत बाहर की चीज थी।

इस सबका दोस्तों, दिलचस्प नतीजा निकलता था, वो यह कि ये कम पढ़े-लिखे सेंसर ऑफिसर्स ऐसी खबरों को तो छपने देते थे, जिन्हे रोकने के लिए उन्हें भेजा जाता था और उन खबरों को रोक देते थे, जिन्हे दर असल छपना होता था। अब मजे की बात यह थी कि सेंसरशिप के यह अधिकारी अगर जाहिल (मूर्ख) थे, तो इनके आला अधिकारी इनसे बड़े पढ़े-लिखे मूर्ख थे। ये लोग जब देखते कि अखबार में वो खबरें छप गई हैं जिन्हे रोकना प्रस्तावित था। तो वो सेंसर की ड्यूटी किसी समझदार अफसर को देने के बजाय सीधा अखबार ही बंद करवा देते थे।

मार्क्स के एक दोस्त Arnold Ruge का भी एक अखबार इसी तरह कुछ समय पहले बंद हो चुका था। Rheinische Zeitung पर भी सेंसरशिप की कड़ी निगरानी थी, लेकिन अब अखबार को चलता रखने की जिम्मेदारी नौजवान कार्ल मार्क्स पर थी।

इस प्रकार मार्क्स के लिए गवर्नमेंट सेंसरशिप और सेंसर ऑफिसर्स से मुकाबला करना भी एक चैलेंज था, लेकिन क्योंकि शरारती तबियत से भी बाज नहीं आता था और बहाने-बहाने सेंसर ऑफिसर्स को डिच भी करता रहता था।

यूँ ही एक बार उसने सेंसर्स ऑफिस से जानबूझ कर यह खबर छुपा ली कि अगले दिन किसी वजह से अखबार नहीं छपेगा। अब सेंसर अफसर रात गए तक अपने दफ्तर में कार्ल मार्क्स के अखबार के ड्राफ्ट का का इंतिजार करता रहा कि वो आये और ये उसे सेंसर कर सके, लेकिन जब बहुत देर तक अखबार नहीं आया तो थक-हार कर वो खुद मार्क्स के घर पहुँच गया और ड्राफ्ट की मांग की ताकि वो उसे सेंसर कर सके और अपनी ड्यूटी पूरी कर सके।

मार्क्स ने उसके लिए दरवाजा खोलने के बजाय खिड़की ही से जवाब दिया कि तुम तो हमारे अखबार छाप ही नहीं रहे थे और उसके बाद उसने खिड़की बंद कर दी, बगैर जवाब सुने। अफसर बेचारा सर पीटता घर चला आया।

जहाँ सेंसरशिप की पाबंदियों से कार्ल मार्क्स परेशान रहता था। वहीं दोस्तों सेंसर ऑफिसर्स की मूर्खता इसके काम भी बहुत आती थी क्योंकि वो कभी-कभार उनके मूरख पन का फायदा उठाकर ऐसे आर्टिकल्स भी छाप देता था, जिन्हे पढ़े-लिखे सेंसर ऑफिसर कभी भी छपने ना देते। उदहारण के तौर पर यह कम पढ़े-लिखे सेंसर ऑफिसर आम सी ख़बरों को सेंसर कर जाते और कार्ल मार्क्स के सेंसरशिप ही के खिलाफ लिखे हुए आर्टिकल्स छपने देते।

मार्क्स कहता था जनता की आलोचना ही सच्ची और असल सेंसरशिप है। गवर्नमेंट सेंसरशिप एक अनाड़ी हकीम की तरह होती है, जो इलाज के नाम पर शरीर का एक-एक हिस्सा काटता चला जाता है। उसने अपने आर्टिकल्स में प्रेस की आजादी के तथाकथित समर्थकों पर भी सख्त कड़ी आलोचना की जो अपने ड्राइंग रूम में बैठकर प्रेस की आजादी पर तो लेक्चर देते थे, लेकिन व्यावहारिक तौर पर प्रेस को आजाद करवाने के लिए कोई काम नहीं करते थे।

मार्क्स की शरारतों और सेंसर्स अधिकारीयों के मूरख पन के बीच किसी ना किसी तरह यह अखबार Rheinische Ziteung छपता ही रहा, लेकिन विडम्बना देखिये कि कार्ल मार्क्स जिसे आधुनिक कम्युनिज्म का जनक समझा जाता है, वो उस वक्त तक यानि अखबार की नौकरी के दौरान तक कम्युनिज्म की ABCD भी नहीं जानता था या फिर यूँ कह लीजिए कि उसके पास इस आइडियोलॉजी के बारे में बहुत ही कम नॉलेज थी।

याद रखिये दोस्तों कि ‘कम्युनिज्म’ की कल्पना या इसकी टर्म मार्क्स की खोज नहीं थी। कम्युनिज्म, सोशलिज्म ही की एक रूप है और यह टर्म उसी दौर से इस्तेमाल होना शुरू हो चुकी थी, जब मार्क्स अभी Ziteung का Editor था।

आप जान चुके हैं कि सोशलिज्म के समर्थक एक मजदूर दोस्त हुकूमत के कयाम (ठहराव) की बातें किया करते थे उन दिनों, लेकिन कार्ल मार्क्स सोशलिज्म या कम्युनिज्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। यहाँ तक कि चंद एक बार जब उसने इस बारे में अपने दोस्तों से बहंस की कोशिश की तो उसने मुँह की खाना पड़ी।

फिर यह हुआ कि इस दौरान कुछ ऐसे क़ानून वहां बने जिन्होंने मार्क्स को कम्युनिज्म की तरफ धकेल दिया, बल्कि वो कम्युनिज्म को मानवता का रक्षक (Savior of humanity) भी समझने लगा। यह थे जंगल के कानून या फारेस्ट लॉज़ जिन्होंने मार्क्स की सोच और दुनिया की तारीख भी आज कहीं ना कहीं बदल कर रख दिया।

दोस्तों, आप जानते हैं कि मार्क्स जर्मन राज्य प्रुशिया के इलाके राइनलैंड से संबंध रखता था और इसका घराना भी राइनलैंड के ट्राएर शहर में रहता था। राइनलैंड में जंगलों की बहुतायत थी। हर शहर, कस्बे या गांव के चारों ओर जंगल मौजूद थे। यह जंगल आमतौर पर अमीर घरानों की प्रॉपर्टी हुआ करते थे। जहाँ वो ज्यादतर अंगूर की खेती करते और वाइन तैयार करते थे। आम लोगों को यहाँ पेड़ वगैरह काटने की इजाजत भी नहीं थी, लेकिन एक अधिकार उन्हें उन दिनों तक बहरहाल हासिल था। वो यह कि पेड़ों की जो शाखें अपने-आप टूटकर नीचे गिर जाती थीं, उन्हें आम लोग अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उठा लिया करते थे। इससे जंगल की सफाई भी हो जाती थी और आम लोगों की मदद भी हो जाती थी।

यह व्यवस्था शादियों से राइनलैंड में जारी थी और इस पर कभी किसी ने कोई ऐतराज नहीं किया था, लेकिन 1840 से शुरू में यह हुआ कि राइनलैंड के अमीर घरानों को अचानक यह लगने लगा कि गरीब लोग उनके जंगलों से लकड़ियां चोरी कर रहे हैं। उनका मानना था कि जो लकड़ियां पेड़ों से टूटकर गिरती हैं, वो भी अमीरों ही की मलकियत है। किसी गरीब को यह हक नहीं पहुँचता कि वो यह लकड़ी उठाकर चलता बने।

इस प्रकार ताकतवर लोगों ने कुछ ऐसे कानून पास करवाये, जो बाद में जंगल के कानून के नाम से मशहूर हो गए। आप इन्हे जंगल लॉज़ भी कह सकते हैं। इन कानूनों में यह तय किया गया था कि जो गरीब किसी अमीर के जंगल में गिरी हुई एक लकड़ी भी उठाएगा, तो उसे कैदखाने में डाल दिया जायेगा। इससे बढ़कर यह कि जंगल का मालिक उस गरीब से अपनी लकड़ी की कीमत भी वसूल कर सकता था और यह कीमत मालिक की मर्जी के मुताबिक तय होती थी यानि अमीर आदमी जो तय करना चाहे वो कर दे और गरीब को वो अदा करना पड़ेगा।

यह क़ानून शाब्दिक और मानवी हर ऐतबार से जंगल के कानून थे और इन कानूनों ने राइनलैंड की जनता में शख्त गुस्सा पैदा कर दिया था, लेकिन सरकार को भला गरीबों के गम और गुस्स्से की क्या परवाह थी। उन्होंने जंगल के कानून पर शख्ती से पालन करवाने का फैसला किया। इस प्रकार जो भी इन कानूनों को तोड़ता उसे थाने-कचेहरी के चक्कर काटना पड़ते थे। होते-होते यह हुआ कि कुछ दी दिनों में गरीबों के खिलाफ लगभग डेढ़ लाख मुकदमे दर्ज हो गए।

दोस्तों, यह जंगल के कानून की मंजूरी ही थी, जिन्होंने Karl Marx को Communism (साम्यवाद) के ज्यादा करीब कर दिया। वैसे, अमीर और गरीब के फर्क को तो वो तब से नोट कर रहा था, जब वो Trier City में रहता था, जिसके चारों ओर अंगूरों के बागात थे। जिनके मालिक अमीर लोग उनसे वाइन प्रोड्यूस करते थे और अमीर से और अमीर होते जा रहे थे। जबकि उन अंगूरों के बागों में काम करने वाले गरीब लोग गरीब से और गरीब होते जा रहे थे। उसके शहर की ज्यादातर आबादी गरीब थी, बल्कि भीख माँगने और देह व्यापार करने के लिए मजबूर थी।

इन लोगों की हालत को मार्क्स ने बहुत करीब से देखा था, लेकिन उस समय वो यह नहीं जान पाया था कि उन लोगों की इस हालत का जिम्मेदार कौन है या कौन सा फैक्टर इसका जिम्मेदार है?

लेकिन, अब एक जर्नलिस्ट की हैसियत में जब वो ज्यादा बा खबर था, तो वो अपनी आँखों से यह देख रहा था कि किस तरह जर्मनी के धनी लोग गरीबों का खून कानून और नियम के नाम पर निचोड़ रहे हैं।

मार्क्स उस जुल्म पर खामोश ना रह सका। उसने कलम उठाई और जंगल के इन कानूनों के खिलाफ कुछ आर्टिकल्स लिख डाले। इन आर्टिकल्स में मार्क्स ने उन कानूनों पर कड़ी आलोचना की, बल्कि इस कानून का समर्थन करने वाले सरकारी ओहदे दारों पर तंज के तीर भी बरसाए।

सरकारी सेंसरशिप की अक्षमता की वजह से यह आर्टिकल भी छप गए, लेकिन आला सरकारी अधिकारी इन आर्टिकल्स पर शख्त नाराज हुए, जब यह उन तक पहुँचे। मार्क्स ने इन आर्टिकल्स में अपना नाम तो नहीं लिखा था, लेकिन जाहिर है अखबार का एडिटर तो वही था। इसलिए सरकार ने ना मालूम जर्नलिस्ट और अखबार के खिलाफ एक्शन लिया।

राइनलैंड के गवर्नर ने प्रुशिया की संघीय सरकार से दरखास्त की यह आर्टिकल लिखने वाले ना मालूम जर्नलिस्ट के खिलाफ सरकारी संगठनों के अपमान का मुकदमा चलाया जाय।

राइनलैंड के गवर्नर ने Ziteung Newspaper को अशिष्टाचार स्वाभाव का अपराधी करार दिया। गवर्नर के इस दिलेर स्वाभाव पर मार्क्स ने एक कदम पीछे हटाया और सतर्क प्रकृति आचरण अपनाया। इसने गवर्नर को एक डिप्लोमैटिक सा खत भी लिखा। उसने लिखा कि जैसे पूरा जर्मनी राजा की सलामती के लिए प्रार्थना करता है। वैसे ही हम भी उनके लिए नेक तमन्नाओं का इजहार करते हैं, वगैरह-वगैरह।

यह सब जाहिर है वो खुद को और अखबार को बचाने के लिए कर रहा था, लेकिन इस तारीफी खत के बावजूद सरकार और अखबार के बीच पैदा होने वाला तनाव कम होने के बजाय, समय के साथ-साथ बढ़ता ही चला गया।

फिर 21 जनवरी 1843 को एक घुड़सवार Prussia की राजधानी बर्लिन से घोड़ा दौड़ता हुआ Cologne पहुँचा। उसके पास एक सरकारी आदेशपत्र था। उस आदेशपत्र मे लिखा था कि सरकार ने Rhein-Zeitung Newspaper का लाइसेंस कैंसिल कर दिया है और अब मार्च 1843 के बाद यह अखबार प्रकाशित नहीं हो सकेगा।

Zeitung Newspaper के लाइसेंस की मुद्दत मार्च में खत्म हो रही थी और सरकार ने बता दिया था कि वो यह लाइसेंस अब रिन्यू नहीं करेगी। हैरतअंगेज बात यह है कि यह हुक्म प्रुशिया के King “Frederick William IV” ने दिया था।

यह शाही फरमान मार्क्स और उसके साथियों के लिए बहुत हैरतअंगेज था। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया है? कि राजा ने खुद अखबार बंद करने का हुक्म जारी किया है।

उन दिनों किसानों के समर्थन में कुछ आर्टिकल्स छपे थे। मार्क्स का अंदाजा था कि शायद इन आर्टिकल्स से सरकार नाराज हो गई है। मार्क्स और उसके साथी नहीं जानते थे कि पर्दे के पीछे एक और ही ग्रेट गेम चल रही है।

अखबार बंद करने का हुक्म बर्लिन से नहीं दोस्तों बल्कि रूस से आया था। जी..हाँ, मार्क्स के अखबार को बंद करने का हुक्म प्रशिया के राजा ने नहीं, बल्कि रूसी के राजा “Tsar Nicholas I” ने दिया था।

हुआ यह था कि Zeitung Newspaper में 04 जनवरी 1843 को एक ऐसा आर्टिकल छपा था, जिसमे रूसी सरकार पर कड़ी आलोचना की गई थी। अब प्रशिया उस जमाने में यानि 1840s में रूस का अलायन्स। जब रूसी गवर्नमेंट को इस आर्टिकल के बारे में जानकारी हुई, तो रूस में प्रशियाई अम्बेस्डर को तलब कर लिया गया।

रूसी सरकार ने Prussian Ambassador से सवाल किया कि आपकी शख्त सेंसरशिप के बावजूद जर्मन प्रेस हमारा अपमान कैसे कर सकता है? प्रशियाई अम्बेस्डर ने बर्लिन में अपनी सरकार को इस घटना के बारे में बताया। इस प्रकार यह अखबार बंद कर दिया गया। बहरहाल यह बात मार्क्स को बहुत देर बाद पता चली कि उसका अखबार रूसियों ने बंद करवाया था।

तारीख का सितम देखिये दोस्तों, उस वक्त कौन जानता था? इसी Karl Marx के पॉइंट ऑफ व्यू (दृष्टिकोण) एक दिन रूस के राजा “Tsar Nicholas I” का तख्ता हमेशा के लिए उलट देंगे और उसके परिवार का खात्मा कर देंगे। अगर रूसी राजा को इसका थोड़ा सा भी खतरा होता तो अखबार तो एक तरफ Karl Marx ही शायद जिन्दा ना रहता।

बहरहाल दोस्तों, Nicholas I की फरमाइश या हुक्म पर अखबार Zeitung बंद हो चुका था। इस अख़बार की बंदिश के बाद जब जर्मन प्रेस में एक पॉलिटिकल कार्टून छाया हुआ, जिसमे कार्ल मार्क्स को अपने आइडियल यूनानी देवता प्रोमेथियस के अंदाज में दिखाया गया था। फर्क सिर्फ इतना था कि प्रोमेथियस एक चट्टान के साथ, लेकिन कार्ल मार्क्स एक प्रिंटिंग प्रेस से बंधा हुआ था और एक गिद्ध उसका पेट चीर कर उसका जिगर निकालने की कोशिश कर रहा था। यूँ दोस्तों मार्क्स अपने आइडियल देवता की कहानी की मूल तस्वीर भी किसी हद तक बन गया था।

Zeitung Newspaper बंद होने पर जहाँ जर्मनी के आजाद ख्याल तबके (वर्ग) परेशान थे, वहीं हैरतअंगेज तौर पर कार्ल मार्क्स खुश था। जी..हाँ, वो दिल ही दिल धन्यवाद दे रहा था कि सेंसरशिप के कड़े नियमों में काम करने से छुटकारा मिला और अब वो और कोई और रास्ता तलाश करने में आजाद है। उसने अपने Friend ‘Arnold Rouge’ से कहा कि इस माहौल में मेरा दम घुटता जा रहा है। अभाव और पाबन्दी की फिजा में काम करना और आजादी के लिए तलवार के बजाय सुई की नोक इस्तेमाल करना एक फिजूल सी बात लगती है। सरकार ने मेरी आजादी मुझे वापस कर दी है।

अखबार की बंदिश के बाद अस्थायी तौर कार्ल मार्क्स खुद को हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था। साथ में वो यह भी समझ चुका था कि जर्मनी में रहकर वो अपनी बात आजादी से नहीं कह सकता। वो जान गया था कि जर्मनी में सेंसरशिप जिस हद तक शख्त हो चुकी है। यह किसी क्रान्ति के बगैर अब खत्म नहीं हो सकती।

शो, अब वो ऐसी जगह जाना चाहता था, जहाँ उसे लिखने और बोलने की आजादी हासिल हो और जहां जर्मन सरकार का बस भी ना चलता हो ताकि वो बेफिक्र होकर अपने क्रांतिकारी एजेंडे को आगे बढ़ा सके।

वैसे भी जर्मनी में अब उसका था ही कौन? उसने कई करीबी रिस्तेदार और दोस्त बहुत पहले ही खो दिए थे। उसके पिता Heinrich Marx जो उसके सबसे ज्यादा करीबी दोस्त भी थे। उनकी भी डेथ हो चुकी थी। उनकी डेथ के बाद अपनी माँ से भी कार्ल मार्क्स की अनबन हो चुकी थी।

मार्क्स की माँ को शिकवा (शिकायत) थी कि वो घर का खर्च चलाने के बजाय क्रांतिकारी सरगर्मियों में समय खराब कर रहा है। इसीलिए मार्क्स से अब उन्होंने कभी सीधे मुँह बात भी नहीं की थी और मार्क्स भी ज्यादातर उनसे दूर ही रहता था यानि उसने प्रैक्टिकली अपनी माँ को खो दिया था।

माँ-बाप के अलावा, बड़ा नुकसान यह हुआ कि कार्ल मार्क्स ने अपनी शाख्तगीर तबियत (कठोर व्यवहार) की वजह से अपने दोस्तों को भी अपना दुशमन बना लिया था। वो अपने करीब-तरीन (निकट-निकृष्टतम्) दोस्तों पर सख्त विद्वत्तापूर्ण आलोचना करता था कि वो उससे बदजन (जो किसी की ओर से बुरा विचार रखे) हो जाया करते थे।

कल तक जो उसके व्यक्तित्त्व से प्रभावित थे। अब उसे देखकर रास्ता बदलने लगे थे। जर्मनी की एलीट क्लास और सरकारी कर्मचारी पहले ही उसे राजा का दुश्मन समझकर उससे खिचे-खिचे रहते थे। तो संक्षिप्त रूप से यह कि जर्मनी के बड़े शहरों में कार्ल मार्क्स अकेला हो गया। अगर उसका कोई सच्चा दोस्त और चाहने वाला रह गया था, तो वो सिर्फ एक हस्ती थी, मार्क्स की सब्ज (हरी) आँखों वाली मंगेतर जेनी।

जेनी इन कठिन परिस्थियों में भी उसके साथ थी और उसका इंतिजार कर रही थी, लेकिन मार्क्स के व्यवहार ने उसे तकलीफ पहुँचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जेनी से उसकी सगाई हुए 7 साल गुजर चुके थे और यह 7 साल उन दोनों पर बहुत भारी गुजरे थे, बल्कि एक दूसरे में बहुत बड़ी गलतफहमियां भी पैदा कर गए थे।

दोस्तों, मार्क्स ने यूनिवर्सिटी की पढ़ाई और उसके बाद Cologne में एडिटरशिप की नौकरी के दौरान जेनी से बहुत ही रिलेशन रखा था। अब उस जमाने में फोन या इंटरनेट तो थे नहीं, दोनों सिर्फ खत के जरिये एक दूसरे से राफ्ता रख सकते थे और चिट्ठी-चौपाती में भी जाहिर है हफ्तों और महीनों का टाइम लग जाता था। इसका नतीजा यह निकला कि दोनों Love Birds के बीच कुछ गलतफहमियां पैदा हो गईं।

जेनी एक अमीर घराने की लड़की थी और उसके लिए तो रिश्तों की कोई कमी नहीं थी। उधर मार्क्स ने कोलोन में यह जो क्रांतिकारी सरगर्मियां शुरू कर रखी थीं और अखबार में वो जिस तरीके से सरकार के खिलाफ शख्त आर्टिकल्स लिख चुका था। उसने एलीट क्लास में उसके कई दुश्मन पैदा कर दिए थे। इन दुश्मनों में जेनी और मार्क्स के कई रिस्तेदार भी शामिल थे, जो इन दोनों को एक साथ नहीं देखना चाहते थे।

अब समस्या यह थी कि जेनी को ट्राएर में रहकर इन सब दुश्मनों से अकेला ही लड़ना पड़ता था यानि अपने रिश्तेदारों के ताने सुनती और दिल ही दिल में कुढ़ती रहती, लेकिन जब वो मार्क्स को खत लिखकर अपनी परेशानियों का जिक्र करती, तो कार्ल मार्क्स उल्टा उससे नाराज हो जाता। उसे लगता कि जेनी अब उससे बेजार (अप्रसन्न, खिन्न) हो गई है। जान छुड़ाना चाहती है। वो जेनी के शिकवों के जवाब में अपना जबाब-ए-शिकवा लिखकर भेज देता। उसे पढ़कर बेचारी जेनी और भी परेशानी का शिकार हो जाती।

जेनी को शिकवा था कि मार्क्स उसकी मोहब्बत पर शक कर रहा है और मार्क्स समझता था कि जेनी उससे बेजार (अप्रसन्न, खिन्न) हो चुकी है। उससे उकता गई है। इसी दौरान कथित तौर पर मार्क्स ने जेनी से बेवफाई भी की। उसने अपनी माँ की उम्र की एक जर्मन शायरा (कवयित्री) से इश्क लड़ाया। सितम (अफसोस की बात) तो यह है दोस्तों कि वो एक बार मार्क्स इस महिला को लेकर अपने शहर ट्राएर आया और जेनी से उसकी मुलाकात करवाई। यह मुलाकात जेनी पर यकीनन कयामत बनकर गुजरी होगी, लेकिन इस घटना के बावजूद जेनी मार्क्स से मोहब्बत करती रही और उससे ब्रेकअप उसने नहीं किया।

दिलचश्प बात यह है कि एक बार जेनी ने अपने खत में मार्क्स को उसकी बे-हिसी (मनोवृत्ति) का एहसाह दिलाने के लिए लिखा “ओह, कार्ल तुम्हे मेरे हालात और दुख का जरा भी एहसास नहीं, काश ऐसा हो सकता कि तुम कुछ देर के लिए मेरी जैसी अजीबो-गरीब लड़की बन सकते, तो मुमकिन था कि तुम्हे मेरा कुछ एहसास तो हो जाता।”

बहरहाल 7 बरस के अर्से में जुदाई और गलतफहमियों की भटठी तपती रही। मार्क्स की जर्मन शायरा (कवयित्री) से दूरी हो गई और जेनी बिछड़ी हुई मोहब्बत की तरह एक बार फिर उसके रग-ओ-पै (पूरे शरीर) में समा गई।

जब मार्क्स ने जर्मनी छोड़ने का फैसला किया, तो सबसे पहले जेनी के घर पहुँचा और उससे शादी रचा ली। इस शादी में उसके सिर्फ चंद एक दोस्त और ससुराली रिस्तेदार (In-law relative) ही शामिल हुए। मार्क्स की माँ या उसके घर से कोई नहीं आया। मार्क्स की सास (Mother-in-law) ने अपनी बेटी को जहेज में कुछ गहने और चाँदी की एक प्लेट देने के अलावा नोटों से भरा एक संदूक भी तोहफे में दिया था। वो चाहती थीं कि इस रकम से यह जोड़ा अपनी नई जिंदगी शुरू करे, लेकिन हुआ यह कि मार्क्स और जेनी ने अपने हनीमून ट्रिप में एक हफ्ते के दौरान ही यह सारी रकम उड़ा दी। जेनी को जहेज में जो चाँदी की प्लेट और जेवर (गहना) मिला था, वो भी अगले कई बरस तक महाजनों के पास गिरवी रखा जाता रहा।

शादी के बाद Karl Marx 6 माह तक घर दामाद बनकर रहा। उसके सामने सवाल यह था कि वो जर्मनी छोड़कर कहाँ जाये? बहुत सोच-विचार के बाद उसने फ्रांस की राजधानी पैरिस जाने का फैसला किया क्योंकि वहां उसका पुराना दोस्त Arnold Rouge पहले से मौजूद था। उसने भी जर्मनी में सेंसरशिप से तंग आकर देश छोड़ दिया था और पैरिस में एक नया अखबार निकालने की तैयारी कर रहा था।

Arnold Rouge ने पैरिस जाने से पहले मार्क्स को अपने इस नए अखबार में एडिटरशिप की जॉब भी ऑफर कर दी थी और मार्क्स ने इसे कुबूल भी कर लिया था। मार्क्स ने तय कर लिया था कि अब वो जिंदगी भर क्रांति ही के लिए काम करेगा और एक ऐसा निजाम, सिस्टम, व्यवस्था बनाएगा, जिसके जरिये दुनिया से अमीर और गरीब का यह जो फर्क है, यह हमेशा के लिए मिट जायेगा। इस प्रकार 1843 के आखिर में मार्क्स अपनी पत्नी जेनी समेत अपने क्रांतिकारी सफर पर रवाना हो गया। वो तारीख का रुख मोड़ने वाला था।

कार्ल मार्क्स को देश निकाला, निर्वासन में क्या कुछ सहना पड़ा? उसे अपनी जिंदगी का बेहतरीन क्रांतिकारी साथी कैसे मिला और वो कौन था? मार्क्स के तीन सवालों का जवाब क्या था? वो सवाल, जो वो बचपन से खुद से और दूसरों से पूछ रहा था। उसने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो कैसे तैयार किया? यह सब हम आपको बताएँगे, लेकिन Karl Marx कौन था? के तीसरे भाग में।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *